तारकेश्वर सिंह
चंदौली।एक शिक्षक को व्यवस्था ने जितना हाशिए पर धकेला है, उतना शायद किसी और ने नहीं। आज शिक्षकों की बहुत सी समस्याएं हैं, परंतु कोई भी उनसे पूछने को तैयार नहीं। हां, समस्याओं का दोषी शिक्षक को जरूर ठहरा दिया जाता है। लोग शिक्षा जगत में किए जा रहे सुधारों की बात करते हैं तो बहुत खुशी होती है, लेकिन क्या सुधार शब्द को केवल शिक्षकों से जोड़कर देखना ठीक है। भारत में इस दिन को ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। आजाद भारत के पहले उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णनन का जन्मदिन इसी दिन आता है। वे खुद भी एक शिक्षक थे। 1954 में उन्हें भारत रत्न देकर सम्मानित किया गया। 1962 में उन्हें देश का दूसरा राष्ट्रपति चुना गया। उपराष्ट्रपति बनने के बाद इस शिक्षाविद् ने जब राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारी संभाली तो 5 सितंबर को उनके जन्मदिन पर कुछ पूर्व छात्र उन्हें बधाई देने पहुंचे। तो डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णनन ने कहा कि मेरा जन्मदिन मनाने की बजाय आप इस दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाएं। उनकी महानता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपना जन्मदिन मनाने की बजाए सभी शिक्षकों को यह दिन समर्पित कर दिया भले ही आज एक शिक्षक को सम्मानित करने के लिए इस दिन की उपयोगिता नहीं के बराबर रह गई हो। आज के दौर में यह विचारणीय है कि क्या सच में आज के विद्यार्थी व शिक्षक इस दिवस को मनाना चाहते हैं? क्या आज सच में एक शिक्षक अपने उस सम्मान को बरकरार रख पाया है? एक व्यक्ति के जीवन में जन्मदाता से ज्यादा महत्व शिक्षक का होता है, क्योंकि ज्ञान ही व्यक्ति को इंसान बनाता है, जीने योग्य जीवन देता है और वह ज्ञान सिवाय एक शिक्षक के कोई और नहीं बांट सकता। पुरातन काल में गुरू द्रोणाचार्य ने पांडव-पुत्रों, विशेषकर अर्जुन को जो शिक्षा दी। उसी की बदौलत महाभारत में पांडव विजयी हुए। वह गुरु द्रोणाचार्य ही थे जो खुद हार गए, लेकिन अपने शिष्यों को अपनी शिक्षा से विजयी बना गए। भारत में राम-विश्वामित्र, कृष्ण-संदीपनी, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य-चाणक्य व विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस आदि शिष्य-गुरू की एक ऐसी महान परंपरा रही है।